पुरातन संस्कृति में महिला की अस्मिता और आधुनिक युग का महिला सशक्तिकरण
समयातीत में विघटित घटनाओं और मानसिक कुंठा के कारण, स्त्रियों का स्थान प्राचीन काल से तुलनात्मक रूप में पतन की ओर बढ़ा है। विगत कुछ दशकों का अवलोकन करें तो हम कह सकते हैं कि नारी में समानता का अधिकार मिल रहा है उसे सशक्त किया जा रहा है। पर भारतीय संस्कृति का अयुत अर्थात दस सहस्त्र वर्ष से भी पुराना इतिहास है। अगर उसे तुलना करें तो यह विचारणीय है कि उसके अनुरूप नारियों अस्मिता और साख क्षीण नहीं हुआ है। हमारे शास्त्रों के अनुसार नारी का स्थान सर्वप्रथम होता है।

आज के समय में चीजों के बदलाव पर उन बातों पर भी ध्यान आकर्षित करने की आवश्यकता है जो कालांतर में इतिहास में महिलाओं का स्थान था वो समयातीत में दिग्भ्रमित होकर प्रारूप बदल सा गया है। हम उस संस्कार को मानते थे जहाँ मानव मूल्यों पर आधारित पुस्तक मनुस्मृति में कथित श्लोक महिलाओं की अस्मिता की उच्च स्तरीय व्याख्या करती है। कहा गया है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
अर्थात जिस स्थान पर स्त्रियों की पूजा की जाती है और उनका सत्कार किया जाता है, उस स्थान पर देवता सदा निवास करते हैं और प्रसन्न रहते हैं | जहां ऐसा नहीं होता है, वहां सभी धर्म और कर्म निष्फ़ल होते हैं। पर पाश्चात्य सभ्यता तथा मुग़ल काल में हुए नारी के अस्मिता पर आघात ने नारी की क्षमता और बढ़ कर हिस्सा लेने को धूमिल कर दिया है। सामाजिक परिवेश में मानवीय प्रवृत्ति में अश्लीलता या कामुकता को शांत करने का साधन के रूप में बन गया है।
आज के कालखंड में हम पुरुष और महिला की समानता तथा महिला सशक्तिकरण की बातें अक्सर ही करते या सुनते हैं पर ये अतिशयोक्ति नहीं होगी की जो की पुरातन कथाओं पर नजर डालें तो वास्तविकता प्राचीन काल में कुछ और ही रही है जो आज के आधुनिक परिवेश में लालच लोभ और कामुकता से प्रभावित होकर उसकी परिभाषा बदल गयी है। आज के समय में पुरुष प्रभुत्व समाज के अनुरूप स्त्रियों को अबला बना दिया है और उन्हें दुराचार का सामना करना पड़ रहा है।
वास्तव में अगर प्रकृति के व्यवहार को देखें तो हर वो सृजन एवं ममता का केंद्र स्त्री का पर्याय या प्रतिबिंब के रूप में जाना जाता रहा है। हम प्रकृति, नदी, मातृभूमि हर उस स्वरूप को मातृत्व के रूप में देखते हैं और स्त्री एवं देवी का दर्जा देते हैं। यह साधारण रूप से यह दर्शाता है की स्त्रियों का स्थान हमेशा से सर्वोच्च रहा है और उसे अब सशक्त करना और समानता का अधिकार देना उनके वैभव को बौना करता है। महिला वैसे तो ऊर्जा का वह स्रोत है जिससे नए जीवन का भी सृजन होता है।
भारतीय सनातन संस्कृति के प्राचीन व्याख्या या पौराणिक कथाओं के अनुरूप जब सृष्टि की रचना हुई तो उस ब्रह्म स्वरुप ने सृष्टि के सृजन हेतु ब्रह्मा पालन के लिए विष्णु एवं संहार के लिए शिव की उत्पत्ति हुई। अब इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तुलना करें तो ब्रह्मा जो प्रकृति का सृजन करते हैं उन्हें हर योजना हेतु ज्ञान और अनुसंधान की आवश्यकता होगी जिसे पूर्ण करने हेतु उन्हें ज्ञान की देवी सरस्वती का साथ मिला। किसी भी समाज परिवार या प्रदेश के सुचारू रूप से संचालन करने हेतु धन की आवश्यकता होती है इसलिए विष्णु जिन्हें सृष्टि का संचालन करने का दायित्व मिला था उन्हें धन की देवी लक्ष्मी का साथ मिला। तत्पश्चात संहारक शिव जो हर तत्त्व को अपने अंदर विलीन कर लें या संहार करें जिसके पुनर्निर्माण करने के लिए अपने अंदर समाहित करने हेतु पार्वती गौरी का साथ मिला। माना जाता है कि जो सद्भाव, पोषण तथा मातृत्व का प्रतीक हैं जिसमें सब कुछ समाहित करने का गुण है जो संहार के गुण का परिचायक है।
इन सभी बातों को अगर कल्पना भी मानें तो पौराणिक कथाओं के अनुरूप स्त्री को हमेशा बराबरी का और पुरुषों के कार्य को पूर्ण करने में सहयोग के करने के दृष्टिकोण से देखा गया है। प्राचीन परंपरा के एक खंड में दुर्गा पूजा में स्त्री के विभिन्न स्वरूप को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और उनके दैनिक पूजन में उपयोग आने वाले कवच में भी शक्ति स्वरूप देवी से खुद के रक्षा के लिए आशीष मांगते हैं।
उनमें कई अन्य गुण भी होते हैं जैसे महिलाओं में कई भावनाओं को एक साथ रखने के गुण को नकारात्मक रूप में देखा जाता है पर वह एक बार में कई भावनाओ को एक साथ प्रकट भी कर सकती है। अगर नाराज है तो अपने साथी से गुस्सा और बच्चों से प्रेम और बड़ों से आदर भाव से पेश आ सकती है जबकि पुरुषों में ऐसा गुण नहीं होता है।
महिला सशक्तिकरण वास्तव में उनकी अस्मिता और छवि को धूमिल करता है जो पहले से सशक्त है प्रकृति प्रदत्त सृजन, सौम्यता, शक्ति और मातृत्व का प्रतीक है। चाणक्य ने भी पुरुषों से महिला के तुलनात्मक गुण व्याख्या में कहा है – त्रीणां दि्वगुण आहारो बुदि्धस्तासां चतुर्गुणा, साहसं षड्गुणं चैव कामोष्टगुण उच्यते।।
अर्थात स्त्रियों में दो गुना अधिक भूख, चार गुना अधिक बुद्धि, छः गुना अधिक साहस और आठ गुना अधिक कामुकता के गुण होते हैं। यह सब दर्शाता है की महिलाएं पहले से सशक्त और योग्य हैं। यह तो दुर्भाग्य है कि मानवीय प्रवृत्ति या आज के परिवेश में अश्लीलता या कामुकता की प्रचुरता के कारण नारी अबला और बेबस हो गई हैं। जबकि उन्हें मौका मिले तो वह हर क्षेत्र में आगे निकलती हैं और एक साथ कार्य क्षेत्र और कुशल गृहणी के रूप में सबके सामने प्रस्तुत होती है। आज के परिवेश में यह व्याख्यान सिर्फ महिलाओं के खोयी हुई अस्मिता पर प्रकाश डालना है न की किसी समुदाय या लिंग विशेष पर पक्षपात पर की टिप्पणी नहीं है।