प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण, धन संचय से भी ज्यादा जरूरी
बसा रहे हैं बस्तियां जंगल घने उजाड़
कल की चिंता किए बिना हम ही जीवन रहे बिगाड़
आज रोज की आपा-धापी और दैनिक जीवन यापन करने में व्यस्त होकर जीवन की मूलभूत जरुरत हवा, जल, भूमि हम सभी प्रदूषित कर रहे हैं तथा इन सभी संसाधनों को धन से न खरीद पाने की विवशता को भी न समझते हुए इस पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। प्राचीन काल में मनुष्य का जीवन प्रकृति के गोद में ही पलता था। प्रकृति से ही हम सभी सृजित हैं और इसने हमें बहुत कुछ दे रखा है जैसे कि वायु, वनस्पति, जल, जीव जंतु, स्थल एवं वृक्ष इत्यादि। पशु-पक्षी, वृक्ष, लता सबको हम परिवार का अभिन्न अंग मानते थे। मानव प्रवृति में लोभ की लालसा बढ़ने से प्रकृति का मनमाना दोहन होने लगा है तथा प्रकृति में जीवन चक्र असंतुलित हो रहा है। भारतीय संस्कृति में पृथ्वी को माता माना गया है और हम सभी इसके पुत्र और पुत्रियां हैं।शास्त्रों में कथित श्लोक इसको यथार्थ रूप में दर्शाता है –
‘माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या’ अर्थात यह पृथ्वी हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं।
जीवनोपयोगी जितने भी संसाधन है जैसे भूमि, हवा, फल, फूल, खाना इत्यादि प्रकृति और पृथ्वी ने अपने बच्चों के रूप में हमें मुफ्त में ही उपलब्ध कराया है। उचित प्रक्रम, थोड़े प्रयास तथा प्राकृतिक प्रक्रिया से इन संसाधनों को आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है। हमें जीवन जीने के लिए मूलतः श्वास लेने हेतु ऑक्सीजन या वायु, पीने के लिए पानी एवं खाने के लिए अन्न इन सभी को प्रकृति प्रदत्त संसाधन के रूप में जीविकोपार्जन हेतु उपयोग सामान्यतः रोजाना जीवन में करते हैं तथा यह सब बिना अत्यधिक निवेश के उपयोग में लिया जा सकता है। मगर ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सभी साधन जिनका हम उपयोग दैनिक जीवन में करते हैं वह निश्चित मात्रा में ही उपलब्ध है। इनमें से कुछ संसाधन को प्रचुरता प्रदान करने तथा अन्वेषण के प्रयास में हमारे पूर्वजों द्वारा किया योगदान भी है। जैसे कि पेड़ सैकड़ों सालों से लगा हुआ है, जिससे हम सभी स्वच्छ हवा एवं शुद्ध वातावरण में श्वास ले पाते हैं, वैसे ही भवन निर्माण, बिजली, विभिन्न प्रकार के वाहन, बल्ब, खाने का प्रकार इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा कालांतर में किये प्रयास का नतीजा है। पर हम आज जंगल तथा पेड़ उपयोग हेतु काटे जा रहे हैं, पर्यावरण और जल को दूषित कर रहे हैं पर प्राचीनतम काल के प्रयास से ही आज इसकी प्रचुरता मिलती है और वर्तमान में इस दिशा में आवश्यक प्रयास की कमी दिख रही है।
हाल हीं में हमने प्रकृति के दुष्प्रभाव का भीषण प्रकोप कोविड और कोरोना के रूप में झेला है। हमने यह भी अनुभव किया कि धन संचय उतना सहायक नहीं हो सकता अगर वातावरण दूषित हो जाये या नियंत्रण में न रहे तो। साथ ही हम यह भी अनुभव कर रहे हैं कि इन संसाधनों की दुर्लभता का दंश कई अन्य क्षेत्रों और प्रदेशों में झेलने को मिलने लगा है। वर्तमान समय में ही साउथ अफ्रीका की राजधानी केप टाउन तथा उसकी दक्षिणी क्षेत्र के कई शहरों को पानी रहित क्षेत्र घोषित कर दिया गया है जहाँ पानी न्यूनतम स्तर से ख़त्म होने की कगार पर है। भारत में भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा एवं कई अन्य प्रदेशों में भी पानी की किल्लत शुरू हो गयी है। जिस स्थान पर हम सभी रह रहे उस जगह पर भी पानी का स्तर पिछले दशकों में गिरता जा रहा है तथा वायु गुणवत्ता सूचकांक की भी स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। यद्यपि हमारा भी कर्त्तव्य इस राष्ट्र, विश्व, पृथ्वी व् प्रकृति के प्रति बनता है कि यथा शक्ति आने वाले पीढ़ी और भविष्य के लिए कुछ प्रयास हम भी करें। इसमें हम सहयोग कई प्रकार से कर सकते हैं, खुद भी किसी अन्वेषण का हिस्सा बनें या फिर मिले हुए संसाधनों को दूषित करने या दुरुपयोग करने से बचें। जिससे इन संसाधनों को भविष्य में भी आने वाली पीढ़ियों को जिस प्रकार धन संचय या संपत्ति एकत्रित कर दे रहे हैं इसको भी उपलब्ध करा सकें। पर्यावरण संरक्षण धन संचय से भी कहीं ज्यादा आवश्यक है। सनातन संस्कृति के अनुरूप अगर पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं तो यह हमें खुद को बाद में उपयोग करने को मिलेगा या हमारे परिजन तथा आने वाली पीढ़ी सदुपयोग कर पायेगी।

गौरतलब हो कि सभी चिन्हित संसाधन निश्चित मात्रा में ही उपलब्ध हैं तथा जिस प्रकार आप धन संचय तथा संपत्ति संग्रह अपने परिजनों और आने वाली पीढ़ी के लिए करते हैं, उसी प्रकार यह धनोपार्जन के साथ धन से उत्पन्न न किये जाने वाले संसाधनों को भी संरक्षित करना हमारा ही दायित्व बनता है। हम कितना भी धन संचित कर लें, पर पेड़ न होने के चलते वातावरण में फैले भीषण गर्मी को कम नहीं कर सकते, भू जल के स्तर अगर गिर गए या समाप्त हो जाएं तो वापस नहीं ला सकते, बंजर जमीन पर फ़सल उपयुक्त मात्रा ने नहीं ऊपजा सकते, प्रदुषण से पनपे बीमारी का दंश झेलने को विवश हो गए हैं, यह सभी हमारी विवशता हमेशा के लिए बन जाएगी। कृत्रिम वातावरण का निर्माण या उपयोग की वस्तुओं का उपभोग एक निश्चित कालखंड या मात्रा में ही कर पाएंगे तथा वह भी सभी के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पायेगा। अतएव इन प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपभोग पर नियंत्रण की आवश्यकता है।
अगर इसी रूप में सभी बातों को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ धन संरक्षण पर ध्यान दें और प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान न दें तो धन रहते हुए भी जीवनोपयोगी इन मूल संसाधनों से आने वाली पीढ़ी को वंचित कर देंगें। इसलिए हम सभी को सचेतने की जरुरत है और यदि हम आज धन संरक्षित कर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे भी दें तो ये प्राकृतिक संसाधन आने वाले समय में नहीं दे पाएंगे। शास्त्रों के अनुरूप प्रकृति और पृथ्वी को हमेशा माता का दर्जा दिया गया है। यह जो पृथ्वी माता हैं, यह मात्र मनुष्यों की ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों का पालन-पोषण समान रूप से करती हैं। उसकी दृष्टि में सभी एक समान ही हैं। इस समानता को स्थापित करने के लिए व्याख्यान में मनुष्य तथा पशुओं के लिए ‘द्वीपद’ और ‘चतुष्पद’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसकी व्याख्या अथर्वेद के श्लोक में भी है-
“त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः।” अर्थात हे पृथ्वी माता! जो प्राणी (त्वत् जाताः) तुझसे उत्पन्न, और तुझ पर ही (चरन्ति) विचरते हैं। उन (द्वीपदः) दो पैर वाले मनुष्यों और (चतुष्पदः) चार पैरो वाले पशुओं का (बिभर्षि) भरण-पोषण करती हो।
मनुष्य को अपने चित्त में सदा इस बात को रखते हुए कर्म करना चाहिए कि इस पृथ्वी पर जितना अधिकार हमारा है, उतना ही अधिकार सभी प्राणियों का है और इस तरह से सामंजस्य बनाकर रहना ही सुरक्षित, सुदृढ़ और विकसित भविष्य की आधारशिला है। शास्त्रों के अनुरूप मनुष्य जीवन में चार प्रकार के ऋण – देव ऋण, गुरु ऋण, पितृ ऋण और लोक (सामाजिक ) ऋण में से लोक ऋण का भी प्रमुख स्थान है जिसके अनुरूप सामाजिक रूप से सबसे उपयोग में आने वाले संसाधन तथा पर्यावरण को संतुलित रखना यह भी सामाजिक ऋण चुकाने का ही हिस्सा है। जो हमारे नैतिक दायित्व और दैनिक जीवन का भी हिस्सा बनना चाहिए।