कथाओं के रहस्यपौराणिक कथाएँ और परंपराएँ

संस्कृति, समस्या या समाधान? राम नाम का इतना महत्व क्यों?

संस्कृति किसी धर्म या समुदाय तक निहित नहीं है, यह एक जीवन रूपी यात्रा या यूँ कहें तो सुमार्ग है जो जाति धर्म से परे किसी मानव के  जीवन यात्रा को सरल और सुनियोजित तरीके से पूरा करने हेतु पूर्वजों के अनुभव के आधार पर हम सभी को दिया वरदान है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे वर्तमान परिवेश में कोई आविष्कार या अन्वेषण संग्रहित करते हैं तथा हम अपने शोध को विभिन्न माध्यम से आने वाली पीढ़ियों तक उनके उपयोग के लिए अग्रेषित करते हैं। हम इस प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा से भी भली भांति परिचित हैं जिसके अंतर्गत किसी अनुभवी के बताये मार्ग पर चलें तो हम अपने गंतव्य एवं लक्ष्य तक आसानी से पहुंच जाते हैं। मगर परिस्थितियां आज विषम हैं, परिवेश आधुनिकता की और अग्रसर है तथा सोच व्यापक परिवर्तन की आवाज उठाते हुए अक्सर ही दिख जाती है। इस परिवेश में हम सभी भारतीय को विश्व व्यापी उत्कृष्ट मानव जीवन तथा जीवन मूल्यों को सिखाने वाली संस्कृति के अग्रदूत होने के नाते कुछ प्रयास इसे बचाने तथा आज के परिपेक्ष्य में पुनरावृति के तौर पर जागृत करने हेतु जरूर करना चाहिए।  

आज के परिवेश में सारे देश आर्थिक और तकनीकी महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर हैं पर भारत की पहचान उस राष्ट्र के रूप में है जिसने प्राचीन काल से ही जीवन मूल्यों को प्राथमिकता दी है और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ अर्थात यह पूरा विश्व एक परिवार है को आधार स्तम्भ माना है। जो इस बार भारत की अध्यक्षता में हुए G20 समूह बैठक का आदर्श वाक्य भी था। यह आदर्श वाक्य आपसी सद्भाव के लिए प्रेरित करता है जिसका वर्णन 1893 में शिकागो के धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने भी किया था। उसकी गाथा आज भी पूरा विश्व दोहराता है। वैसे तो कालांतर में भारतीय संस्कृति सोने की चिड़िया के रूप में जग व्यापी रही है जहाँ विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला और गुरु के यहाँ दीक्षा लेने की गुरुकुल परम्परा का सृजन हुआ था। हमारी संस्कृति महात्मा गांधी द्वारा गढ़ी गई वह अवधारणा ‘सर्व धर्म सम भाव’ अर्थात जो सभी धर्मों द्वारा अपनाए गए मार्गों के गंतव्य की समानता को भी प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करता है। यहाँ की संस्कृति तथा जीवन जीने के आदर्श रूप में जीवन को सुगम बनाने के लिए योग और आसन का उपयोग तथा स्वयं के अस्तित्व को जानने एवं संवारने के लिए ध्यान, प्राणायाम तथा अन्य प्रणाली के उल्लेखनीय उपलब्धि तथा इसके अनुसरण से होने वाले लाभ को विश्व भी कभी नजरअंदाज नहीं कर पाया है। तो इस वैभव और अभिन्न पहचान को जीवंत रूप देने के लिए इसके उस अलौकिक दिव्य स्वरूप को भी उजागर करने की आवश्यकता है। इसलिए संस्कृति का अनुसरण तथा राम मंदिर निर्माण भी एक समाधान के रूप में लेना चाहिए तथा इसके अनुरूप हम सभी को भी समस्या नहीं समाधान का हिस्सा बनना चाहिए। 

इन्ही विचारों को यथार्थ रूप में ज्ञान, परम्परा और प्रणाली के रूप में हमारे गुरुजनों द्वारा विभिन्न माध्यमों से समझाया गया है जो समुचित रूप में एक संस्कृति का रूप धारण करते हुए इस जगत का अनेक रूप में मार्गदर्शन करती है। उसी अंश में  किसी भी भगवान का पूजन, मंदिर निर्माण, महापुरुषों की जयंती, स्मृति चिन्ह इत्यादि उनके आदर्शों और उपलब्धियों को जागृत रखने तथा उनके मार्गदर्शनों को जीवन में अनुसरण करने हेतु प्रेरित करती है।  वैसे तो पुरातन संस्कृति में स्मृति चिन्हों तथा मूर्ति पूजा का अलग महत्व है, जिसमें हम भगवान स्वरूप को याद करते हुए उन्हें सम्मान देते हैं तथा उनके पद चिन्हों और मार्गदर्शन का अनुसरण करने तथा सन्मार्ग पर चलने का संकल्प भी लेते हैं। इस प्रसंग में हम सब कभी न कभी यह जरूर सोचते हैं कि भगवान का क्या अस्तित्व है, हम मूर्ति पूजा क्यों करते हैं, मंदिरों का निर्माण क्यों करें इत्यादि? तो इसकी कल्पना उस रूप में हम अपने वर्तमान से भी कर सकते हैं, जब हम अपने पूर्वज, माता-पिता, दादा-दादी, गुरुजन, परिजन तथा जिन्हें भी आदर्श मानते हैं उनकी तस्वीर को एक निश्चित स्थान पर रखते हैं, उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं तथा उनके बताये सन्मार्गों पर चलने हेतु प्रेरित होते हैं।  

इस बारे में स्वामी विवेकानंद का एक प्रसिद्ध प्रसंग याद आता है। उस प्रसंग में स्वामी जी जब अलवर के महाराजा मंगल सिंह के दरबार में राजा के शिकार किये जानवरों की तस्वीर दीवारों पर लगी देख प्रश्न करते हैं कि बेवजह मनोरंजन हेतु जीव हत्या करना क्या उचित है, कोई जानवर ऐसा नहीं करता और यह अर्थहीन लगता है। आप सिर्फ मनोरंजन के लिए ऐसा क्यों करते हैं? उस तर्क पर राजा मंगल सिंह ने उत्तर दिया कि ‘आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हैं, वो मिट्टी, पत्थर या धातुओं के टुकड़ों के अलावा और कुछ नहीं है, इसलिए मुझे यह मूर्ति-पूजा अर्थहीन लगती है।’ संस्कृति और विश्वास पर ऐसी बातें सुनकर स्वामी विवेकानंद दुखी होकर तर्क प्रस्तुत करने के लिए राजा को उनके महल में पिता की लगी तस्वीर के सामने ले जाते हैं। वहां जाकर दरबार के दीवान को उस पर थूकने को कहते हैं, जिसे देख राजा को गुस्सा आ जाता है। तत्पश्चात उन्हें समझाने के क्रम में स्वामी जी व्यंगात्मक तरीके से कहते हैं कि इसमें आपके पिता कहाँ? यह तो एक कागज का टुकड़ा और उस पर ही बनी एक चित्र है। राजा की बोली बातों का बोध कराने के लिए स्वामी जी आगे समझाते हैं कि जिस प्रकार आप एक तस्वीर को अपने पिता के प्रतिबिंब के रूप में मानते हैं और उसके प्रति आदर भाव है, जो आपको उनसे जुड़ी बातों की याद दिलाता है ठीक उसी प्रकार मूर्ति या कोई भी भगवान की प्रतिमा प्रतीकात्मक स्वरूप है जिसे हम उनका  स्वरूप मान कर पूजा अर्चना करते हुए उन्हें याद करते हैं तथा उनसे आशीर्वाद लेकर उनके पद चिन्हों पर चलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। 

इन विचारों के स्तम्भ रूप में श्री राम का जीवन दर्शन भी है जो मानवीय मूल्यों के उपयोगिता को दर्शाता है तथा हम सभी और आने वाली पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा का श्रोत है। जो हर रूप में मानवीय जीवन से तुलना करने पर उपयुक्त और उत्तम रूप में सटीक बैठता है वही राम है। ‘रमंति इति रामः’ अर्थात जो रोम रोम में बसता है वही राम है। इसलिए राम मंदिर का निर्माण एक प्रतीक है जो श्रेष्ठतम मानवीय मूल्यों का परिचायक कहलायेगा तथा जो विश्व को चरित्र निर्माण की महत्ता और संस्कार की जीवन में उपयोगिता और उसके चलते हुए इतिहास में बदलाव को दर्शाते हुए पूरी दुनिया को अपने जीवन के उच्च स्तर की अस्मिता को पाने के लिए प्रेरित भी करता रहेगा।

वास्तव में श्री राम का जीवन चरित्र उन सभी आदर्श कल्पनाओं को यथार्थ रूप में प्रदर्शित करता है जो किसी व्यक्ति विशेष के लिए हर रिश्तों के स्वरूप में या सामाजिक जीवन हेतु सदुपयोगी या अनुकरणीय हो। आज के परिवार के वीभत्स रूप में जहाँ सगे सम्बन्धी संपत्ति के लिए संबंध विच्छेद कर लेते हैं, उनके लिए एक उदाहरण स्वरुप राम वह पुत्र हैं जो पिता की आज्ञा मानकर राजपाट और समृद्ध जीवन को त्याग कर वन को चले जाते हैं। दोस्तों को धोखा देने वाली प्रवृति में राम मित्रता का वह प्रतीक हैं जो सुग्रीव के साथ सौगात में सुख दुःख साथ बांटते हैं और उनके राज्य और पत्नी को वापस दिलाने में मदद कर एक आदर्श मित्रता के स्वरूप को चित्रित करते हैं। अपने ही दल से छल करने वालों के लिए राम भरोसा दिखाने का वह उदाहरण हैं जो हनुमान और अंगद को बिना किसी नियम पुस्तिका के लंका में अपना संदेश वाहक बना कर भेजते हैं और उन घटनाओं से मिली प्रेरणा उनके एक कुशल नेता और प्रबंधन गुरु होने का प्रमाण देते हैं। लंका पर विजय पाने के बाद भी घमंड का थोड़ा अंश भी न दिखाते हुए राम वह व्यक्तित्व हैं है जो रावण के भाई विभीषण को लंका का राजा बना देते हैं साथ हीं मित्र स्वरुप स्वीकार कर भू राजनीति का एक प्रबल उदहारण प्रस्तुत करते हैं। ऊंच नीच से परे भील समाज की सबरी के तपस्या का फल उसके जूठे बैरों को खा कर श्रद्धा का सम्मान कर आत्मीयता और  सौम्यता का प्रतीक बनते हैं। केवटों के राजा निसाद राज के पैर धोने के अनुरोध को विनम्रता से मान कर उसे भी रत्न की अंगूठी पारिश्रमिक देकर राजा होने और भक्ति वात्सल्य होने का प्रमाण साथ साथ देते हैं । उनके चरित्र की व्याख्यान शब्दों में समाहित नहीं हो सकती क्यूंकि पुराणों के अनुरूप भगवान राम मानव संरचना के वह प्रथम आदर्श स्वरुप हैं जिनके चरित्र की व्याख्या करने के लिए महाकाव्य रामचरितमानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने की जो हम सबके हृदय में वास करते हैं। 

राम वास्तव में एक महान विभूति हैं जिन्होंने शत्रु रावण का वध करने के बाद उनकी पत्नी मंदोदरी से क्षमा मांग कर अकारण हुए विध्वंस का पश्चाताप जताते हैं तथा शीर्षता का एक अद्वितीय मिशाल प्रस्तुत करते हुए, रावण के दुश्मन होने के बाद भी उसके सदगुड़ों की व्याख्यान कर लक्ष्मण को सीख लेने के लिए प्रेरित करते हैं। महापंडित रावण भी अपने बुद्धिमता का प्रमाण लक्ष्मण को अपने जीवन से मिली तीन प्रमुख सीख देकर मृत्यु लोक को जाते हैं। इनमें से प्रमुख पहला ‘शुभस्य शीघ्रम’ अर्थात शुभ कार्य का अगर विचार आये तो उसमें विलंब नहीं करना चाहिए तथा किसी कार्य को कल पर नहीं टालना चाहिए जैसे त्रिलोक विजय के स्वप्न को मैं रोज कल पर टालता था। दूसरा, किसी भी कार्य, शत्रु या चीज को छोटा नहीं समझना चाहिए जैसा मैंने राम और पूरी वानर सेना को समझा था। तथा तीसरा अपने रहस्य को किसी के साथ साझा नहीं करना चाहिए जैसे मैं अगर आत्मा कलश के रहस्य को नहीं बताता तो मृत्यु शय्या पर न पड़ा रहता। यह सभी घटनाएं हम सभी को भी प्रेरित करती है। 

पर फिर भी हम मनुष्य के मन में विभिन्न विचार अनेक रूप में आते हैं। कुछ इसे वास्तविक मानते हैं तो कुछ काल्पनिक। इन बातों के अनुरूप अगर हम राम से जुड़ें इतिहास को तथा राम को परिकल्पना का एक पात्र मान भी लें तो उस ऐतिसाहिक कथा और उसके पात्र से जुडी घटनाओं से जीवन दर्शन की कई सारी सिख मिलती है। भारतीय दर्शन तथा पौराणिक कथा के अनुरूप  राम को मानव का सर्वप्रथम सामान्य रूप माना जाता है और उनका चरित्र दर्शन एक आदर्श इंसान से जुड़े सारे गुणों को दर्शाता है। दर्शन शास्त्र के अनुरूप वे चारों भाई राम, लक्ष्मण, भरत व् शत्रुघ्न पुरुषार्थ के चार स्तम्भ को प्रतिबिंबित करते हैं। पुरुषार्थ के चार स्तम्भ धर्म जो की राम जिनको मर्यादा  पुरुषोत्तम राम से जानते हैं, लक्ष्मण जो काम का प्रतीक है और धर्म के साथ हमेशा परछाई के रूप में रहता है। शत्रुघ्न जो अर्थ का प्रतीक है और वो राजधानी और कार्यक्षेत्र में सफल सञ्चालन के लिए समर्पण भाव को दर्शाता है। वही भरत मोक्ष का परिचायक है अर्थात धर्म के किसी भी प्रतीक जैसे की राम के खड़ाऊं को भी प्रतीकात्मक रूप में रख कर पुरे राज्य का सकुशल सञ्चालन कर लेता है। 

राम चरित्र के व्याख्यान में एक और रामायण में वर्णित घटना याद आती है जिसमें विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुंच कर राम को साथ ले जाने के लिए और दीक्षा देने की बात कहते हैं उस पर दशरथ कहते हैं आप स्वर्ण मुद्रा, राज्य, धन, वैभव जो कुछ भी चाहें मांग सकते हैं पर आपको राम ही क्यों चाहिए उस पर राम चरित्र को दर्शाने के लिए जो विश्वामित्र ने बात कही वह आज के सभी मानव जगत के लिए आंख खोलने वाला है। 

विश्वामित्र कहते हैं- यौवनं धन संपत्ति: प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्।।

अर्थात यौवन (जवानी), धन , संपत्ति (सम्पन्नता), प्रभुत्व (साख व् पहचान) इनमें से कोई एक भी आ जाये  तो अनर्थ हो जाता है पर राम के पास तो चारों हैं फिर भी मर्यादित है और विवेकशील हैं ऐसे महान विभूति की पुरे लोक को आवश्यकता है।  

राम मंदिर निर्माण आज के लोभी संस्कार में उस संस्कार को उजागर और प्रकाशित करेगा जो यह दर्शाता है की वह व्यक्ति जीवन मूल्यों को इस तरीके से जीता है की एक पिता की आज्ञा को मानने और उसके वचन को निभाने के लिए अपने ऐश्वर्य, आराम के जीवन और राज पाठ को त्याग कर जंगल चला जाता है दूसरा भाई अपने भाई के संघर्षों की कल्पना कर उसकी परछाई बन कर उसके साथ चल पड़ता है और अन्य भाई राजपाट मिलने के बाद भी भाई के खड़ाऊ को धर्म का प्रतीक और उनके वचन की मान रखते हुए उनके आदर्श चिन्हों पर चलता है। इस विषय पर यह बात कहना भी कहीं गलत नहीं होगा की रावण हर चीज में राम से अपेक्षाकृत महान था जिसे ब्रह्माण्ड में महा-ज्ञानी, महा-तपस्वी, शंकर जी का महान भक्त माना जाता था जिनके द्वारा रचित शिव तांडव श्रोत आज भी पूजन में प्रयोग करते हैं।  जो महाप्रतापी किसी भी चीज पर जीत पाने की प्रबल शक्ति रखने वाला त्रिलोक विजयी था पर फिर भी गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम चरित्र मानस बनाया क्योंकि राम का वो मर्यादित स्वरूप और चरित्र उनको इन सबके बावजूद पूजनीय बनाता है और हम सभी के लिए आदर्श का प्रतीक है और पूरी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी है।   

ऐसे उत्कृष्ट मानव मूल्यों की कल्पना तथा अपने जीवन में अनुसरण निश्चित रूप से एक उत्कृष्ट समाज बनाने की कल्पना को सार्थकता की ओर ले जाता है।  इन कारणों से ही वैसे महापुरुष भगवान राम को हम सभी जीवन में उतार पाएं इसलिए भी उनके जीवन दर्शन का प्रचार प्रसार और उनके नाम पर निर्मित मंदिर भविष्य में उत्कृष्ट चरित्र द्वारा निर्मित सर्वश्रेष्ट राष्ट्र के नींव के रूप में कारगर सिद्ध होगा। इन सभी चर्चाओं का उद्देश्य यह है की भारतीय संस्कृति जो मानव मूल्यों का आधार रही है जो विश्व व्याप्त भी है उसे हम सभी सामूहिक प्रयास से खुद के तथा अपने परिजनों के भलाई के लिए यथार्थ में लाने की कोशिश करें तभी सपनों में संजोय अपने आने वाली पीढ़ी के बेहतर जीवन की कल्पना तथा उत्कृष्ट समाज तथा राष्ट्र बनाने का प्रयास सार्थक हो पायेगा। 

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